Wednesday, 7 January 2009

सफ़र को जब भी

सफ़र को जब भी किसी दास्तान में रखना,
क़दम यक़ीन में, मंज़िल ग़ुमान में रखना।
जो साथ है वही घर का नसीब है लेकिन,
जो खो गया है उसे भी मकान में रखना।
जो देखती हैं निगाहें, वही नहीं सब कुछ,
ये एहतियात भी अपने बयान में रखना।
वो एक ख़्वाब जो चेहरा कभी नहीं बनता,
बना के चांद उसे आसमान में रखना।
चमकते चांद-सितारों का क्या भरोसा है,
ज़मीं की धूल भी अपनी उड़ान में रखना।
सवाल तो बिना मेहनत के हल नहीं होते,
नसीब को भी मगर इम्तिहान में रखना।
(मक़बूल शायर जनाब निदा फ़ाज़ली की नज़्म)

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