Thursday, 4 December 2008

सियासत में सीरियल ब्लास्ट...

मुश्क़िलों में हौसले आज़माना सीख ले, दर्द में भी यार मेरे मुस्कुराना सीख ले...! मुंबई में हुई आतंकी घटना की गंभीरता और उसके दर्द को महसूस करते हुए पूरी संजीदगी के साथ माफ़ी सहित कुछ कहने की हिम्मत कर रहा हूं। माफ़ी इसलिए क्योंकि, बहुत से लोग हालात और हादसे में पीड़ित लोगों का ख़्याल किए बिना काफ़ी कुछ कह गए और बम धमाके के बाद उठे सियासी तूफ़ान में बह गए। मगर मैं नहीं बहूंगा, क्योंकि ऐसा-वैसा कुछ नहीं कहूंगा। हां, इतना ज़रूर कह सकता हूं कि, जो कहूंगा सच कहूंगा और इस कड़वे सच में भी आपके लबों पर एक मासूम मुस्कान आ सकेगी। और वो भी तब, जब आतंकी धमाकों के बाद भी सीरियल ब्लास्ट थमे नहीं।
चलिए तो शुरू करते हैं, शिव से। नहीं, भगवान शिव नहीं, वो तो पालनहार हैं, वो कहते नहीं करते हैं। हम बात कर रहे हैं शिवराज पाटिल की, जिनके राज में आतंकी बार-बार अपना राज कायम करते रहे। कभी धमकियों से तो कभी धमाकों से। मगर, ऐसा धमाका अब तक नहीं हुआ था, होना भी नहीं चाहिए। पर धमाका तो हुआ और क्यों हुआ, इसी सवाल का जवाब देने के चक्कर में शिवराज बन गए शत्रुघ्न सिन्हा...यानी ख़ामोशशशश। मुंबई में आतंकी ख़ामोश हुए तो सियासत की दुनिया में होने लगे सीरियल ब्लास्ट। पहला ब्लास्ट दिल्ली में हुआ और वो भी कांग्रेस के घर में और देश के गृह मंत्री शिवराज पाटिल के दिल पर। धमकी और धमाके के बेहद ख़तरनाक़ फ़र्क को नहीं समझने की उन्हें बराबर सज़ा मिली। शिव से छिन गया राज और सिर से उतर गया होम मिनिस्टर का ताज। ख़ैर इस्तीफ़े के बाद शिवराज पाटिल ख़ुद को `हल्का ` महसूस करने लगे, तो क़द में छोटे और थोड़े-से मोटे उनके सियासी भाई पाटिल नंबर टू यानी आर आर पाटिल भी `हल्के ` होने के लिए बेचैन होने लगे। बेचैनी बढ़ गई तो उन्होंने पूरी आतंकी वारदात को ही हल्का बता दिया। बोले- आतंकी तो पांच हज़ार लोगों को मारने आए थे, सिर्फ़ पांच सौ के आस-पास लोग ही प्रभावित हुए। बड़े शहरों में ऐसी छोटी घटनाएं होती रहती हैं। दरअसल, आतंकी हमले की गंभीरता और उसका असर उन्हें तब महसूस हुआ, जब उनका ये बयान शोले बन गया और पाटिल ख़ुद शोले के ठाकुर की तरह लाचार हो गए। ये दूसरा धमाका था, जो मुंबई में महसूस किया गया और तीसरा सियासी आरडीएक्स यहीं फटा। माननीय मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ताज में पहुंचे बॉलीवुड का ग्लैमर लेकर। राम गोपाल वर्मा को साथ लेकर ताज के ताज़ा हालात का जायज़ा लेने पहुंचे देशमुख का छिन गया सुख।
अब रामगोपाल वर्मा साथ होंगे तो आग तो लगनी ही थी, लेकिन रामू की आग में झुलस गए देशमुख और हो गए नि:शब्द। विलासराव तो ख़ामोश हो गए, लेकिन हाईकमान ने उनकी सियासी चाय में कर दी चीनी कम और उन्हें नहीं रहने दिया महाराष्ट्र का सी एम। सियासत की दुनिया में तीन बड़े सीरियल ब्लास्ट होने के बाद जब धुआं छंटने लगा, तो इस आग में कूद गए पहली और संभवत: आख़िरी बार मुख्यमंत्री (केरल) बने वी एस अचुत्यानंदन। खांटी लाल सलाम के झंडाबरदार अचुत्यानंदन एक शहीद के घर पर हुई घटना (मुंबई आतंकी हमले में शहीद एनएसजी कमांडो मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पिता की सी एम अचुत्यानंदन से नाराज़गी) पर उबल पड़े। अचुत्यानंदन भी बम की तरह फटे और वो भी मीडिया के सामने। शहीद के घर जाने के मुद्दे पर उनके अनचाहे बयान ने एक और तूफ़ान खड़ा कर दिया
पहली बार हिंदुस्तान पर हुए इतने बड़े आतंकी हमले के ख़िलाफ़ जो जज़्बा देशवासियों ने दिखाया, उसे लाल खेमे ने फ़ौरन भांप लिया। पूरा देश आतंकियों के एक्शन और नेताओं के अजब से रिएक्शन के ख़िलाफ़ लाल हो चुका था। और सबके हाथों में रोशन हो गया करो या मरो जैसा जज़्बा। इसीलिए लेफ्ट के दिग्गजों ने इस मामले में राइट बयान दिया और सी एम अचुत्यानंदन को रॉन्ग (गलत) क़रार दिया। ख़ैर देर आए दुरुस्त आए और अचुत्यानंदन ने भी अपने बयान को लेकर दबी ज़ुबान से अफ़सोस ज़ाहिर किया। मगर, राजनीति में चार धमाकों के बावजूद देश को कोई अफ़सोस नहीं हुआ होगा, क्योंकि अब तक तो ब्लास्ट का दर्द सिर्फ़ जनता महसूस करती थी, लेकिन इस बार सियासत की पांच सितारा दुनिया में आतंकियों ने जो धमाका किया है, उससे जनता और नेता के बीच का फ़र्क कुछ कम ज़रूर हुआ है। मगर, मक़सद तो ये है कि, आतंकी घटना का दर्द और उसकी दहशत कम करने की ज़िम्मेदारी जिन (नेता) पर है, उन्हें हर हाल में ऐसे हमलों की भनक लगते ही ख़ुद अपने एक्शन से किसी बम की तरह फट जाना चाहिए।
वंदे मातरम.....

Monday, 1 December 2008

ऐसे जागती रही मुंबई...

जो शहर ख़ुद अपनी मर्ज़ी से कभी सोता नहीं उसे ज़बर्दस्ती जगाया गया.., ठीक उसी तरह जैसे किसी बच्चे को ज़बर्दस्ती जगाया जाता है। फिर जिस तरह बच्चा रो-रोकर आसमान सिर पर उठा लेता है, उसी तरह रोई मुंबई। रोईं हज़ारों आंखें, चीखे सैकड़ों बच्चे और कई मांओं के कलेजे चाक (चीर) करने के साठ घंटे बाद बहुत मुश्क़िल से आई नींद। मगर, उस नींद के आने से पहले, कुछ ऐसे बच्चे हमेशा के लिए सो गए, जो मादरे वतन के वीर बेटे थे और अपनी मां से बेहद प्यार करते थे। बेटे तो हमेशा ही ज़िद करते हैं, और मां उन्हें सुकून देने के लिए सब कुछ करने को तैयार रहती है, मगर कुछ ऐसे बेटे रहे, जिन्हे ज़िद थी, मां को पुरसुकून देने की। वो बहुत बड़ी क़ीमत अदा कर गए। मां के दूध का और वतन की मिट्टी का कर्ज़ चुका गए। ये वही बेटे हैं, जो अपनी मां के दिल का चैन किसी भी क़ीमत पर खोने नहीं दे सकते। शहीद तो हमेशा से ही ऐसी नींद के तलबगार रहे हैं, जो तिरंगे के आंचल में सिमट जाने का मौक़ा देती है। मगर, लंबी नींद सोने वाले वीर अपनी आख़िरी सांस तक जांबाज़ी के चिराग़ को अपने लहू से रोशन करते रहे। शहादत की राह में बढ़ने वाले क़दमों को सिर्फ़ और सिर्फ़ जज़्बातों की ज़ुबां से सलाम करते हुए (26/11/08) के दर्दनाक हादसे को आंखों में, सीने में, दिलो-दिमाग़ में और बुरे ख़्वाबों की ताबीर बनाते हुए कुछ ख़्यालात और कुछ मलाल का इज़हार करने से ख़ुद को रोक नहीं सका।

अपना काम कर गए करकरे......

मुंबई के सीएसटी से लेकर ताज होटल तक और ओबरॉय होटल से नरीमन हाउस तक, आतंक के वहशी जुनून में सना हुआ, जो गोला-बारूद फ़िज़ा में क़रीब साठ घंटे तक तैरता रहा, उसे सबसे पहले अपने सीने पर महसूस किया एटीएस चीफ़ हेमंत करकरे ने। उनके साथ एसिस्टेंट कमिश्नर आम्टे और सीनियर इंस्पेक्टर सालस्कर के अलावा मुंबई पुलिस महकमे ने जिन जांबांज़ों को खोया है, आतंकी बारूद की महक ने सबसे पहले उनकी रग़ों का ख़ून खौला दिया। कोई शक़ नहीं, कि वहशी अपने इरादों को उम्मीद से ज़्यादा ख़ून में नहलाकर आगे बढ़ने में क़ामयाब रहे, लेकिन उन्हें इस बात का एहसास भी हो चुका था, कि अब वो बहुत देर तक सरेआम अपने ख़ूनी पंजों को नहीं फैला पाएंगे। आतंकी हमले के बाद कुछ ही लम्हों में जब करकरे अपने जांबाज़ों के साथ दहशत के सरमाएदारों से मुक़ाबिल थे, तो बुज़दिलों ने ख़ून की होली खेलनी शुरू कर दी। भले ही करकरे का सीना छलनी हो गया और उनके साथ गाड़ी में मौजूद जांबाज़ साथियों का ख़ून वतन के काम आ गया, लेकिन आतंकियों के हौसले भी टूट गए। ये आतंकियों पर पहली चोट थी, जिसने उन्हें शहर में खुलेआम और हमले करने से रोक दिया। अब तक उन्हें एहसास हो चुका था, कि उनका बचना नामुमक़िन है, इसलिए वो बढ़ गए ताज, ओबरॉय और नरीमन हाउस की तरफ़। करकरे और उनके साथियों ने जो हौसले दिखाए उसने शहर में सरेआम और क़त्ले-आम से सबको महफ़ूज़ कर दिया। क़रीब साठ घंटे बाद मुंबई में आतंकियों को नापाक लाशों में तब्दील करने के जो लम्हे आए, उनकी बुनियाद रखने के साथ ही क़ुर्बानियों के हमसफ़र बन गए करकरे और उनके साथी।

हक़ीक़त से डर गई सपने की दुनिया...

सपनों की दुनिया में तीन रात ज़िंदा आंखों ने कोई ख़्वाब नहीं देखा, बल्कि हक़ीक़त देखी। ख़ौफ़नाक हक़ीक़त, कभी न भूलने वाली हक़ीक़त, वो हक़ीक़त जिसे कोई ज़ुबां बयां नहीं कर सकती और न ही कोई आंख छिपा सकती है। सपनों के शहर ने यूं तो कई बार ख़ुद को रोते-बिलखते और मजबूरियों के चिल्मन से ख़्वाबों को ज़ार-ज़ार बिखरते देखा, लेकिन इस बार मजबूरी ज़रा जुदा थी, दर्द और ज़्यादा गहरा था, हक़ीक़त किसी डरावने सपने से ज़्यादा ख़तरनाक थी। (26/11/08)..., मुंबई और हिंदुस्तान का काला बुधवार। किसे पता था, कि उस रात किसी को ना तो नींद आएगी और न ही किसी की आंखों में होगा कोई ख़्वाब। जिन रेलगाड़ियों को वक़्त पर अपने मुसाफ़िरों को मंज़िल तक पहुंचाना था, उन्हें बेवक़्त आख़िरी सफ़र पर भेज दिया गया। जो अपनी रात को जश्न के मुक़ाम तक ले जाने के लिए होटल ताज और ओबरॉय में थे, उनमें से कई लोगों को मौत के मातम से रू-ब-रू करवाया गया। जो लोग इन होटलों में अपनी बिज़नेस मीटिंग की कामयाबी के साथ सुनहरे कल की बुनियाद रख चुके थे, या रखने वाले थे, उनके सपनों को कफ़न पहना दिया गया। अपने और अपने परिवार वालों के लिए दुनिया भर की ख़ुशियों का ढेर लगा देने की तमन्ना लिए लोगों ने दुनिया भर से आए लोगों की लाशों के ढेर देखे। ये दुनिया के किसी भी ख़वाब से ज़्यादा डरावनी हक़ीक़त थी, जिसे अब कोई सपने में भी नहीं देखना चाहेगा।

मुंबई के इस हादसे में शहीद हर जांबाज़ को सलाम और इससे हताहत हुए लोगों के प्रति ज़ाहिर अफ़सोस के साथ फिर कभी ऐसा न होने की दुआ करता हूं।

वंदे मातरम.....